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कविता

इतनी बेलय

मयंक श्रीवास्तव


मेरे द्वार नदी की धारा
जो इस बार बही
इतनी बेसुर
इतनी बेलय
पहले नहीं रही।

कोलाहल तो है कलरव
वाला संगीत नहीं
इतने बड़े सफर में
कोई मन का मीत नहीं
नर्तन करना
और लहरना
सब कुछ है सतही

बोल-चाल बतियाने की
उत्सुकता नहीं दिखी
पहली बार नदी में मुझको
ममता नहीं दिखी
करती रही
अनसुनी जब-जब
भी यह बात कही

भूल गई यह नदी कभी
सरगम की रानी थी
धरती की आवाज और
अंबर की बानी थी
पता नहीं
क्या सोच समझ
यह नीरस राह गही


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